भगवान कृष्ण देवी की पूजा करते थे| यह दुर्गा सप्तशती में
उल्लेखित है|
आपमें से कितने लोगों ने ये बात सुनी है?
‘रूपम देहि जयम देहि यशो देहि द्विष जाहि’ – ये श्लोक
दुर्गा सप्तशती के अर्गला स्त्रोतम में से प्राप्त हुए हैं, और
जो इनका जाप करता है, ये उनके लिए कवच बन जाते हैं|
ऐसा कहते हैं, ‘कृष्नेना संस्तुते देवी शाश्वाद भक्त्या
तथाम्बिके, रूपम देहि जयम देहि यशो देहि द्विष जाहि’
अर्थात, ‘ओ देवी, जिसे भगवान श्रीकृष्ण असीम भक्ति के
साथ पूजते हैं, हम पर कृपा करिएँ, और हमें सौंदर्य, विजय और
यश का वरदान प्रदान करिये, और हमारे अंदर की सभी
लालसाओं और अज्ञान को मिटाईये’|
यह प्रार्थना है| यह कवच अर्गला कीलकं के तीन छंदों में हैं|
अगर आप देखें, तो वे वास्तव में देवी ही थीं, जिन्होंने
भगवान श्रीकृष्ण की रक्षा करी थी| देवी का जन्म भी
यशोदा के घर में, अष्टमी के दिन ही हुआ था, और उन्हें उसी
दिन मथुरा लाया गया था| कंस ने उन्हें पकड़ने का, और उन्हें
मार देने का प्रयास किया, मगर वे उसके हाथों से छूट गयीं|
यहाँ, कंस अहंकार का प्रतीक है, और भगवान श्रीकृष्ण आनंद
का प्रतीक हैं, और देवी दुर्गा आद्यशक्ति का प्रतीक है|
अहंकार चेतना या मौलिक ऊर्जा (अर्थात देवी) को बंदी
नहीं बना सकता, और न ही आनंद (अर्थात भगवान श्रीकृष्ण)
को पकड़ सकता है|
तब उस दिव्य चेतना ने ये भविष्यवाणी करी, कि अहंकार
का विनाश करने वाला ‘आनंद’ है – और वह पहले ही जन्म ले
चुका है|
जब जीवन आनंद से भर जाता है, तब अहंकार मिट जाता है|
जब कोई व्यक्ति आनंदित होता है, तब उसमें अहंकार नहीं
होता| लेकिन जब तक अहंकार रहता है, तब तक व्यक्ति कष्ट
भोगता है, और दुखी रहता है| वह किसी न किसी कारणवश
दुखी हो जाता है, और किसी न किसी को उसका दोष
देता रहता है| तब भी अहंकार चेतना का विनाश नहीं कर
सकता, क्योंकि चेतना तो अनंत है|
कुछ भी चेतना को नष्ट नहीं कर सकता, और उसकी शक्ति
को कम नहीं कर सकता| यह स्थिर है, और अनंत है| जो
भौतिकी जानते हैं, वे इस बात को भली-भांति जानते हैं
कि ऊर्जा का न तो कभी निर्माण हो सकता है, और ना
ही कभी विनाश हो सकता है| इसी तरह, चेतना का न तो
निर्माण हो सकता है और न ही विनाश हो सकता है| इस
मौलिक ऊर्जा का निर्माण करने का, या विनाश करने
का कोई भी प्रयास निरर्थक ही जाएगा|
देखिये, अगर आप ऊपरी स्तर पर देखें, तो यह केवल एक कहानी
ही लगती है| लेकिन अगर आप इसकी गहराई में जायें, तो आप
इसके अंदर इतना गहरा ज्ञान छुपा पाएंगे|
भगवान श्रीकृष्ण का जन्म एक कारागार में हुआ था| जब
उनका जन्म हुआ, तब पहरा देने वाले सभी पहरेदार सो गए| ये
पहरेदार कौन हैं? ये प्रतीक हैं, हमारी इन्द्रियों के – जब
हमारी इन्द्रियां जो हमेशा बहिर्मुखी रहतीं हैं, जब वे
विश्राम करती हैं, तभी हम अंतर्मुखी हो पाते हैं, और तभी
हम अपने अंदर से उभरने वाले उस आनन्द की अनुभूति कर पाते हैं,
जिसे हम केवल अपने अंदर ही पा सकते हैं|
इसलिए, इन कहानियों का निरंतर विश्लेषण करिये, इन पर
विचार करिये, और आप पाएंगे कि अद्भुत ज्ञान और प्रेम –
ये दोनों ही आपको उपलब्ध हो जायेंगे|
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि, “तुम खुद अपने आप को अपने
पापों से मुक्त नहीं कर सकते| मैं तुम्हें तुम्हारे पापों से मुक्त कर
दूंगा|’
देखिये, जो कुछ भी कोई व्यक्ति करता है – व्रत रखना,
पूजा-आराधना की जगहों पर जाना, पश्चाताप करना, -
ये सब वह इसीलिये करता है, ताकि वह पापों से मुक्त हो
जाए|
तो, भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘अहम तवं सर्व-पापेभ्यो
मोक्षयिश्यमी मा सुचः’
वे कहते हैं, ‘तुम्हें सिर्फ एक काम करना है| तुम सब कुछ मुझे
समर्पण कर दो, और मेरी शरण में आ जाओ’
वे कहते हैं, ‘मेरी शरण में आ जाओ’ – ये उनकी पहली शर्त है| और
फिर वे कहते हैं, ‘मैं तुम्हें तुम्हारे सभी पापों से मुक्त कर दूंगा|
वह मेरा काम है’|
तो, आपका सिर्फ इतना ही काम है, कि आप उनकी शरण में
आ जायें, और फिर वे आपको आपके पापों से मुक्त कर देंगे| यह
बात कहकर वे सारी बातें कह देते हैं| यह उनकी बात को पूर्ण
बना देता है|
मुझे लगता है कि हमें भगवान श्रीकृष्ण के एक वाक्य को सभी
लोगों तक उपलब्ध कराना चाहिये| हम ये नहीं करते, बल्कि
हम इधर-उधार की सभी बातों को सुनते रहते हैं| खास तौर
पर यह बात – ‘मुझे सब कुछ समर्पण कर दो, और मेरी शरण में आ
जाओ, और मैं तुम्हें तुम्हारे पापों से मुक्त कर दूंगा’|
सिर्फ इसी बात से आज हमारे देश में होने वाले धर्म-
परिवर्तन रुक सकते हैं|
भगवान श्रीकृष्ण ने यही बात कही है|
रविवार, 29 मई 2016
रूपम देहि जयम देहि यशो देहि द्विष जाहि’
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