रविवार, 29 मई 2016

मृत्युभोज

पिछले कुछ समय से ह्वाट्सएप व फेसबुक पर "मृत्युभोज" को लेकर एक पोस्ट प्रचारित व प्रसारित की जी रही है.

जिसे "मृत्युभोज" कहकर दुश्प्रचारित किया जा रहा है, उसका सही नाम "ब्रम्हभोज" है. जो कि यथाशक्ति व इच्छानुसार किये जाने का विधान है. जिसे सोलहवां संस्कार कहा जा रहा है, उसी अंत्येष्टि की आगे की प्रक्रिया में ही श्राद्ध व अन्य क्रिया कर्म आते हैं, जो सोलहवें संस्कार के अंतर्गत ही आते हैं. पुराणों में भी इसकी विवेचना की गई है. इसकी विस्तृत जानकारी हमारे शास्त्रों में है. मनुस्मृति के अध्याय तीन में श्राद्ध के बारे में जानकारी दी गई है. मनुस्मृति के श्लोंकों को महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने कई उदाहरणों के लिए अपनी पुस्तक "सत्यार्थ प्रकाश" में भी प्रयोग किया है.

स्मृतिकारों ने संस्कारों को १० से ४० संस्कार माने हैं. जिनमें १६ संस्कार प्रमुख हैं. मनु ने १४ संस्कारों की बात कही है.

मृत्युभोज के उस पोस्ट में भगवान श्री कृष्ण, महर्षि दयानंद जी, स्वामी विवेकानंद जी, आचार्य श्रीराम जी जैसे महानुभावों का नाम देकर मृत्युभोज को गलत बताने की चेष्टा की गई है. जबकि उपरोक्त महानुभावों का इसे गलत कहने का सही ढंग से कोई उदाहरण नहीं दिया गया है. जो उदाहरण दिए भी गये हैं वो किन काल, परिस्थितियों व परिप्रेक्षय में दिए गये हैं ये समझने वाली बात है, किंतु जिसे समझने का प्रयास ही नहीं किया गया. किस परिप्रेक्षय में मृत्युभोज को नकारा गया है उसे समझना अति आवश्यक है.

ब्रह्मभोज जो कालांतर में मृत्युभोज की विद्रूपता को ग्रहण करता गया. धर्म रक्षा हेतु महर्षि दयानंद सरस्वती व उपरोक्त समस्त महापुरुषों ने मृत्युभोज बंद करने की बात कही. किंतु शास्त्रों में वर्णित क्रिया कर्म व ब्रह्मभोज बंद करने की बात नहीं कही. मृत्युभोज उनके समय में और आज भी कर्म कांड व संस्कार से ज्यादा दिखावे की विद्रूपता से ग्रसित होता जा रहा है. विद्रूपता से जरूर बचना चाहिए. किंतु इसका तात्पर्य ये नहीं कि शास्त्र विदित संस्कारों का त्याग कर देना चाहिए.

महर्षि दयानंद जी ने तो मूर्तिपूजा का भी खंडन किया है. क्या आप इस बात को भी मानने के लिए तैयार हैं कि मूर्तिपूजा बंद कर दी जाय. मूर्तिपूजकों को दयानंद सरस्वती जी ने नास्तिक कहा है. तो क्या हमें स्वयं को नास्तिक मान लेना चाहिए? जो भी हो ऐसा मानने के पीछे भी उनका उद्देश्य धर्म की रक्षा ही था.

मेरा मत इतना ही है कि इन संस्कारों व परंपराओं की वृहद्ता, काल एवं परिस्थितियों को समझने का प्रयास किए बिना हम किसी की एक या दो बातों को ही यथार्थ मान लेने की गलती सदैव कर जाते हैं. जब आप चीजों को संपूर्णता में जानेंगे व समझेंगे तो निश्चित ही आपके विचार भिन्न व सत्यमार्गी होंगे।

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