#प्रातः_स्मरणीय_व_कल्याणकारी_मन्त्र!
भारतीय संस्कृति एक महान संस्कृति है, इसमें न केवल जन्म से मृत्यु तक बल्कि दिन के प्रारम्भ से लेकर अंत तक की भी, महत्वपूर्ण एवं सुन्दर प्रार्थनाओं का समावेश किया गया है। मैं इनमें से दिन के प्रारम्भ की प्रार्थनों को आपके सम्मुख लेकर आया हूं, इस आशा के साथ कि ये प्रार्थनाएं निश्चित ही आपकी शारीरिक-मानसिक-धार्मिक उन्नति में सहायक होगी।
प्रातःकाल उठतेे ही अपने दोनों हाथों को आपस में रगड़े तत्पश्चात अपने हाथों का दर्शन करते हुए, निम्न श्लोक को दोहरायें-
#काराग्रे_वसते_लक्ष्मीः_करमध्ये_सरस्वती।
#करमूले_तू_गोविन्दः_प्रभाते_करदर्शनम्।।1।।
हाथ के अग्रभाग में लक्ष्मी, मध्य भाग में सरस्वती तथा हाथ के मूल भाग में भगवान नारायण निवास करते हैं। अतः प्रातःकाल अपने हाथों का दर्शन करते हुए अपने दिन को शुभ बनायें।
बिस्तर छोड़ने के बाद धरती पर पैर रखने से पहले निम्न श्लोक को दोहराये-
#समुन्द्रवसने_देवि_पर्वतस्तनमण्डले ।
#विष्णुपत्नि_नमस्तुभ्यंपादस्पर्शं_क्षमस्व_मे।।2 ।।
हे! मातृभूमि! देवता स्वयं विष्णु (पतिरूप में) आपकी रक्षा करते हैं, मैं आपको नमस्कार करता हूं। हे सागर रूपी परिधानों (वस्त्रों) और पर्वत रूपी वक्षस्थल से शोभायमान धरती माता, मैं अपने चरणों से आपका स्पर्श कर रहा हूं, इस के लिए मुझे क्षमा कीजिए।
नवग्रह शांति मंत्र -
#ब्रह्मा_मुरारीस्त्रिपुरांतकारी
#भानुः_शशि_भूमिसुतो_बुधश्च।
#गुरुश्च_शुक्रः_शनिराहुकेतवेः
#कुर्वन्तु_सर्वे_मम_सु_प्रभातम्।।3 ।।
ब्रह्मा, मुरारि (विष्णु) और त्रिपुर-नाशक शिव (अर्थात तीनों देवता) तथा सूर्य, चन्द्रमा, भूमिपुत्र (मंगल), बुध, बृहस्पति, शुक्र्र, शनि, राहु और केतु ये नवग्रह, सभी मेरे प्रभात को शुभ एवं मंगलमय करें।
#सनत्कुमारः_सनकः_सनन्दनः
#सनातनोऽप्यासुरिपिङगलौ_च।
#सप्त_स्वराः_सप्त_रसातलानि
#कुर्वन्तु_सर्वे_मम_सुप्रभातम्।।4 । ।
(ब्रह्मा के मानसपुत्र बाल ऋषि) सनतकुमार, सनक, सनन्दन और सनातन तथा (सांख्य-दर्शन के प्रर्वतक कपिल मुनि के शिष्य) आसुरि एवं छन्दों का ज्ञान कराने वाले मुनि पिंगल मेरे इस प्रभात को मंगलमय करें। साथ ही (नाद-ब्रह्म के विवर्तरूप षड्ज, ऋषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद) ये सातों स्वर और (हमारी पृथ्वी से नीचे स्थित) सातों रसातल (अतल, वितल, सुतल, रसातल, तलातल, महातल, और पाताल) मेरे लिए सुप्रभात करें।
#सप्तार्णवा_सप्त_कुलाचलाश्च
#सप्तर्षयो_द्वीपवनानि_सप्त।
#भूरादिकृत्वा_भुवनानि_सप्त
#कुर्वन्तु_सर्वे_मम_सुप्रभातम्।।5 । ।
सप्त समुद्र (अर्थात भूमण्डल के लवणाब्धि, इक्षुसागर, सुरार्णव, आज्यसागर, दधिसमुद्र, क्षीरसागर और स्वादुजल रूपी सातों सलिल-तत्व) सप्त पर्वत (महेन्द्र, मलय, सह्याद्रि, शुक्तिमान्, ऋक्षवान, विन्ध्य और पारियात्र), सप्त ऋषि (कश्यप, अत्रि, भारद्वाज, गौतम, जमदग्नि, वशिष्ठ, और विश्वामित्र), सातों द्वीप (जम्बू, प्लक्ष, शाल्मली, कुश, क्रौच, शाक, और पुष्कर), सातों वन (दण्डकारण्य, खण्डकारण्य, चम्पकारण्य, वेदारण्य, नैमिषारण्य, ब्रह्मारण्य और धर्मारण्य), भूलोक आदि सातों भूवन (भूः, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः, और सत्य) सभी मेरे प्रभात को मंगलमय करें।
#पृथ्वी_सगन्धा_सरसास्तथापः
#स्पर्शी_च_वायुज्र्वलनं_च_तेजः।
#नभः_सशब्दं_महता_सहैव
#कुर्वन्तु_सर्वे_मम_सुप्रभातम्।।6 ।।
अपने गुणरूपी गंध से युक्त पृथ्वी, रस से युक्त जल, स्पर्श से युक्त वायु, ज्वलनशील तेज, तथा शब्द रूपी गुण से युक्त आकाश महत् तत्व बुद्धि के साथ मेरे प्रभात को मंगलमय करें अर्थात पांचों बुद्धि-तत्व कल्याण हों।
#प्रातः_स्मरणमेतद्यो_विदित्वादरतः_पठेत्।
#स_सम्यक्धर्मनिष्ठः_स्यात्_अखण्डं_भारतं_स्मरेत्।। 7।।
इन श्लोको का प्रातः स्मरण भली प्रकार से ज्ञान करके आदरपूर्वक पढ़ना चाहिए। ठीक-ठीक धर्म में निष्ठा रखकर अखण्ड भारत का स्मरण करना चाहिए……!!
सोमवार, 30 मई 2016
प्रातः_स्मरणीय_व_कल्याणकारी_मन्त्र
रविवार, 29 मई 2016
मृत्युभोज
पिछले कुछ समय से ह्वाट्सएप व फेसबुक पर "मृत्युभोज" को लेकर एक पोस्ट प्रचारित व प्रसारित की जी रही है.
जिसे "मृत्युभोज" कहकर दुश्प्रचारित किया जा रहा है, उसका सही नाम "ब्रम्हभोज" है. जो कि यथाशक्ति व इच्छानुसार किये जाने का विधान है. जिसे सोलहवां संस्कार कहा जा रहा है, उसी अंत्येष्टि की आगे की प्रक्रिया में ही श्राद्ध व अन्य क्रिया कर्म आते हैं, जो सोलहवें संस्कार के अंतर्गत ही आते हैं. पुराणों में भी इसकी विवेचना की गई है. इसकी विस्तृत जानकारी हमारे शास्त्रों में है. मनुस्मृति के अध्याय तीन में श्राद्ध के बारे में जानकारी दी गई है. मनुस्मृति के श्लोंकों को महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने कई उदाहरणों के लिए अपनी पुस्तक "सत्यार्थ प्रकाश" में भी प्रयोग किया है.
स्मृतिकारों ने संस्कारों को १० से ४० संस्कार माने हैं. जिनमें १६ संस्कार प्रमुख हैं. मनु ने १४ संस्कारों की बात कही है.
मृत्युभोज के उस पोस्ट में भगवान श्री कृष्ण, महर्षि दयानंद जी, स्वामी विवेकानंद जी, आचार्य श्रीराम जी जैसे महानुभावों का नाम देकर मृत्युभोज को गलत बताने की चेष्टा की गई है. जबकि उपरोक्त महानुभावों का इसे गलत कहने का सही ढंग से कोई उदाहरण नहीं दिया गया है. जो उदाहरण दिए भी गये हैं वो किन काल, परिस्थितियों व परिप्रेक्षय में दिए गये हैं ये समझने वाली बात है, किंतु जिसे समझने का प्रयास ही नहीं किया गया. किस परिप्रेक्षय में मृत्युभोज को नकारा गया है उसे समझना अति आवश्यक है.
ब्रह्मभोज जो कालांतर में मृत्युभोज की विद्रूपता को ग्रहण करता गया. धर्म रक्षा हेतु महर्षि दयानंद सरस्वती व उपरोक्त समस्त महापुरुषों ने मृत्युभोज बंद करने की बात कही. किंतु शास्त्रों में वर्णित क्रिया कर्म व ब्रह्मभोज बंद करने की बात नहीं कही. मृत्युभोज उनके समय में और आज भी कर्म कांड व संस्कार से ज्यादा दिखावे की विद्रूपता से ग्रसित होता जा रहा है. विद्रूपता से जरूर बचना चाहिए. किंतु इसका तात्पर्य ये नहीं कि शास्त्र विदित संस्कारों का त्याग कर देना चाहिए.
महर्षि दयानंद जी ने तो मूर्तिपूजा का भी खंडन किया है. क्या आप इस बात को भी मानने के लिए तैयार हैं कि मूर्तिपूजा बंद कर दी जाय. मूर्तिपूजकों को दयानंद सरस्वती जी ने नास्तिक कहा है. तो क्या हमें स्वयं को नास्तिक मान लेना चाहिए? जो भी हो ऐसा मानने के पीछे भी उनका उद्देश्य धर्म की रक्षा ही था.
मेरा मत इतना ही है कि इन संस्कारों व परंपराओं की वृहद्ता, काल एवं परिस्थितियों को समझने का प्रयास किए बिना हम किसी की एक या दो बातों को ही यथार्थ मान लेने की गलती सदैव कर जाते हैं. जब आप चीजों को संपूर्णता में जानेंगे व समझेंगे तो निश्चित ही आपके विचार भिन्न व सत्यमार्गी होंगे।
सिद्ध-चण्डी महा-विद्या सहस्राक्षर मन्त्र
सिद्ध-चण्डी महा-विद्या सहस्राक्षर मन्त्र
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वन्दे परागम-विद्यां, सिद्धि-चण्डीं सङ्गिताम् ।
महा-सप्तशती-मन्त्र-स्वरुपां सर्व-सिद्धिदाम् ।।
विनियोगः-
------------- ॐ अस्य सर्व-विज्ञान-महा-राज्ञी-सप्तशती रहस्याति-रहस्य-मयी-परा-शक्ति श्रीमदाद्या-भगवती-सिद्धि-चण्डिका-सहस्राक्षरी-महा-विद्या-मन्त्रस्य श्रीमार्कण्डेय-सुमेधा ऋषि, गायत्र्यादि नाना-विधानि छन्दांसि, नव-कोटि-शक्ति-युक्ता-श्रीमदाद्या-भगवती-सिद्धि-चण्डी देवता, श्रीमदाद्या-भगवती-सिद्धि-चण्डी-प्रसादादखिलेष्टार्थे जपे विनियोगः ।
ऋष्यादि-न्यासः-
------------------ श्रीमार्कण्डेय-सुमेधा ऋषिभ्यां नमः शिरसि, गायत्र्यादि नाना-विधानि छन्देभ्यो नमः मुखे, नव-कोटि-शक्ति-युक्ता-श्रीमदाद्या-भगवती-सिद्धि-चण्डी देवतायै नमः हृदि, श्रीमदाद्या-भगवती-सिद्धि-चण्डी-प्रसादादखिलेष्टार्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे ।
महा-विद्या-न्यासः-
---------------------- ॐ श्रीं नमः सहस्रारे । ॐ हें नमः भाले। क्लीं नमः नेत्र-युगले। ॐ ऐं नमः कर्ण-द्वये। ॐ सौं नमः नासा-पुट-द्वये। ॐ ॐ नमो मुखे। ह्रीं ॐ नमः कण्ठे। ॐ श्रीं नमो हृदये। ॐ ऐं नमो हस्त-युगे। ॐ क्लें नमः उदरे। ॐ सौं नमः कट्यां। ॐ ऐं नमो गुह्ये। ॐ क्लीं नमो जङ्घा-युगे। ॐ ह्रीं नमो जानु-द्वये। ॐ श्रीं नमः पादादि-सर्वांगे।।
ॐ या माया मधु-कैटभ-प्रमथनी, या माहिषोन्मूलनी,
या धूम्रेक्षण-चण्ड-मुण्ड-दलनी, या रक्त-बीजाशनी।
शक्तिः शुम्भ-निशुम्भ-दैत्य-मथनी, या सिद्ध-लक्ष्मी परा,
सा देवी नव-कोटि-मूर्ति-सहिता, मां पातु विश्वेश्वरी।।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं ह्मौं श्रीं ह्रीं क्लौं ऐं सौं ॐ ह्रीं श्रीं ऐं क्लीं सौं ऐं क्लीं ह्रीं श्रीं जय जय महा-लक्ष्मि जगदाद्ये बीज-सुरासुर-त्रिभुवन-निदाने दयांकुरे सर्व-तेजो-रुपिणि महा-महा-महिमे महा-महा-रुपिणि महा-महा-माये महा-माया-स्वरुपिणि विरञ्चि-संस्तुते ! विधि-वरदे सच्चिदानन्दे विष्णु-देह-व्रते महा-मोहिनि मधु-कैटभ-जिह्वासिनि नित्य-वरदान-तत्परे ! महा-स्वाध्याय-वासिनि महा-महा-तेज्यधारिणि ! सर्वाधारे सर्व-कारण-करणे अचिन्त्य-रुपे ! इन्द्रादि-निखिल-निर्जर-सेविते ! साम-गानं गायन्ति पूर्णोदय-कारिणि! विजये जयन्ति अपराजिते सर्व-सुन्दरि रक्तांशुके सूर्य-कोटि-शशांकेन्द्र-कोटि-सुशीतले अग्नि-कोटि-दहन-शीले यम-कोटि-क्रूरे वायु-कोटि-वहन-सुशीतले !
ॐ-कार-नाद-बिन्दु-रुपिणि निगमागम-मार्ग-दायिनि महिषासुर-निर्दलनि धूम्र-लोचन-वध-परायणे चण्ड-मुण्डादि-सिरच्छेदिनि रक्त-बीजादि-रुधिर-शोषणि रक्त-पान-प्रिये महा-योगिनि भूत-वैताल-भैरवादि-तुष्टि-विधायनि शुम्भ-निशुम्भ-शिरच्छेदिनि ! निखिला-सुर-बल-खादिनि त्रिदश-राज्य-दायिनि सर्व-स्त्री-रत्न-रुपिणि दिव्य-देह-निर्गुणे सगुणे सदसत्-रुप-धारिणि सुर-वरदे भक्त-त्राण-तत्परे।
वर-वरदे सहस्त्राक्षरे अयुताक्षरे सप्त-कोटि-चामुण्डा-रुपिणि नव-कोटि-कात्यायनी-रुपे अनेक-लक्षालक्ष-स्वरुपे इन्द्राग्नि ब्रह्माणि रुद्राणि ईशानि भ्रामरि भीमे नारसिंहे ! त्रय-त्रिंशत्-कोटि-दैवते अनन्त-कोटि-ब्रह्माण्ड-नायिके चतुरशीति-मुनि-जन-संस्तुते ! सप्त-कोटि-मन्त्र-स्वरुपे महा-काले रात्रि-प्रकाशे कला-काष्ठादि-रुपिणि चतुर्दश-भुवन-भावाविकारिणि गरुड-गामिनि ! कों-कार हों-कार ह्रीं-कार श्रीं-कार दलेंकार जूँ-कार सौं-कार ऐं-कार क्लें-कार ह्रीं-कार ह्रौं-कार हौं-कार-नाना-बीज-कूट-निर्मित-शरीरे नाना-बीज-मन्त्र-राग-विराजते ! सकल-सुन्दरी-गण-सेवते करुणा-रस-कल्लोलिनि कल्प-वृक्षाधिष्ठिते चिन्ता-मणि-द्वीपेऽवस्थिते मणि-मन्दिर-निवासे ! चापिनि खडिगनि चक्रिणि गदिनि शंखिनि पद्मिनि निखिल-भैरवाधिपति-समस्त-योगिनी-परिवृते !
कालि कङ्कालि तोर-तोतले सु-तारे ज्वाला-मुखि छिन्न-मस्तके भुवनेश्वरि ! त्रिपुरे लोक-जननि विष्णु-वक्ष-स्थलालङ्कारिणि ! अजिते अमिते अमराधिपे अनूप-सरिते गर्भ-वासादि दुःखापहारिणि मुक्ति-क्षेमाधिषयनि शिवे शान्ति-कुमारि देवि ! सूक्त-दश-शताक्षरे चण्डि चामुण्डे महा-कालि महा-लक्ष्मि महा-सरस्वति त्रयी-विग्रहे ! प्रसीद-प्रसीद सर्व-मनोरथान् पूरय सर्वारिष्ट-विघ्नं छेदय-छेदय, सर्व-ग्रह-पीडा-ज्वरोग्र-भयं विध्वंसय-विध्वंसय, सर्व-त्रिभुवन-जातं वशय-वशय, मोक्ष-मार्गं दर्शय-दर्शय, ज्ञान-मार्गं प्रकाशय-प्रकाशय, अज्ञान-तमो नाशय-नाशय, धन-धान्यादि कुरु-कुरु, सर्व-कल्याणानि कल्पय-कल्पय, मां रक्ष-रक्ष, सर्वापद्भ्यो निस्तारय-निस्तारय। मम वज्र-शरीरं साधय-साधय, ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे नमोऽस्तु ते स्वाहा।।
१॰ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं नमो दैव्यै महा-देव्यै, शिवायै सततं नमः।
नमः प्रकृत्यै भद्रायै, नियताः प्रणताः स्म ताम्।।
२॰ ॐ ऐं ह्रीं श्रीं सर्व-मंगल-माङ्गल्ये, शिवे सर्वार्थ-साधिके !
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि ! नारायणि नमोऽस्तु ते ।।
३॰ सर्व-स्वरुपे सर्वेशे, सर्व-शक्ति-समन्विते !
भयेभ्यस्त्राहि नो देवि ! दुर्गे देवि ! नमोऽस्तु ते।।
सिद्धि-चण्डी-महा-मन्त्रं, यः पठेत् प्रयतो नरः।
सर्व-सिद्धिमवाप्नोति, सर्वत्र विजयी भवेत्।।
संग्रामेषु जयेत् शत्रून्, मातंगं इव केसरी।
वशयेत् सदा निखिलान्, विशेषेण महीपतीन्।।
त्रिकालं यः पठेन्नित्यं, सर्वेश्वर्य-पुरःसरम्।
तस्य नश्यन्ति विघ्नानि, ग्रह-पीडाश्च वारणम्।।
पराभिचार-शमनं, तीव्र-दारिद्रय-नाशनं।
सर्व-कल्याण-निलयं, देव्याः सन्तोष-कारकम्।।
सहस्त्रावृत्तितस्तु, देवि ! मनोरथ-समृद्धिदम्।
द्वि-सहस्त्रावृत्तितस्तु, सर्व-संकट-नाशनम्।।
त्रि-सहस्त्रावृत्तितस्तु, वशयेद् राज-योषितम्।
अयुतं प्रपठेद् यस्तु, सर्वत्र चैवातन्द्रितः।
स पश्येच्चण्डिकां साक्षात्, वरदान-कृतोद्यमाम्।।
इदं रहस्यं परमं, गोपनीयं प्रयत्नतः।
वाच्यं न कस्यचित् देवि ! विधानमस्थ सुन्दरि।।
।।श्रीसिद्धि-डामरे शिव-देवी-संवादे सहस्त्राक्षरं सिद्धि-चण्डी-महा-विद्योत्तमाम् सम्पूर्णम्।।
""""" साधु """"
साधु अगर दुसरे को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति रखता है तो वह केवल साधारण मनुष्य है उसमें साधुता का कोई अंश नहीं है वह केवल अपने उदर की पूर्ति कर रहा है
बातो के साधु बहुत मिलते हैं
परंतु पेट से भी साधु होना चाहिए
जो केवल ऊपर से साधुता की बात कहता है और उन चीजों का सेवन करता है जो उसे नहीं करना चाहिए तो वह केवल पाखंड के अलावा कुछ नहीं कर रहा है
महत्वपूर्ण यह है कि हमें अपने जीवन में अच्छे आचरण अच्छा भोजन स्वातिक भोजन करना चाहिए ना कि मास भक्षण शराब भक्षण और किसी भी प्रकार का नशा इत्यादि नहीं करना चाहिए ।।
निर्वाणता अनुपम है बहुत झीनी है
जो अल्प आहारी है
जिसने अपने गतिमान को बस में कर रखा है
जिसने अपनी स्वास की गति पर अंकुश लगा रखा है नियंत्रण कर रखी हैशरे एक हल पल नल के लिए सतर्क है अलस साधु वहीं है
वही निर्वाणी है वही पीर है आजम है
सम्पूर्ण सृष्टि में अनेक प्रकार की योनी है
परंतु मनुष्य योनि सर्वोच्च है
माता पिता भाई बंधु हमें प्रत्येक योनि मिलते हैं
परंतु गुरु सेवा और ईश भक्ति की चेतना हमें केवल मनुष्य योनि ही मिलती हैनथ
इन बातों समझना अवश्य है
बिना किसी दिखावे के सच्चे मन बिना किसी स्वार्थ कामना से ईश भक्ति गुरु सेवा करे
जहाँ स्वार्थ कामना जन्म लेती है वह भक्ति पर एक अंकुश जन्म मारण का लग जाता है
क्योंकि यह कामक भक्ति कहलाती है
बिना किसी लोभ के मात्र ईश्वर के अगर हाथ भी जोडे तो वह कोटी यज्ञ सामन ही मानो वह एक झण हमारा जीवन उज्ज्वल बना सकता है
कोई हंस बना
कोई परमहंस बना
कोई बना है अघोरी
बिन गति भेदे कुछ नहीं मिलता सब बाता है कोरी।
ना जगत को चला सकता है
ना जगत का कोई पोसण कर सकता है
व्यर्थ के दंभ भरने से अच्छा है मोनी हो जाओ
कुछ ना मिले तो गम को खाओ।।
💐💐💐👏👏👏💐💐💐
रूपम देहि जयम देहि यशो देहि द्विष जाहि’
भगवान कृष्ण देवी की पूजा करते थे| यह दुर्गा सप्तशती में
उल्लेखित है|
आपमें से कितने लोगों ने ये बात सुनी है?
‘रूपम देहि जयम देहि यशो देहि द्विष जाहि’ – ये श्लोक
दुर्गा सप्तशती के अर्गला स्त्रोतम में से प्राप्त हुए हैं, और
जो इनका जाप करता है, ये उनके लिए कवच बन जाते हैं|
ऐसा कहते हैं, ‘कृष्नेना संस्तुते देवी शाश्वाद भक्त्या
तथाम्बिके, रूपम देहि जयम देहि यशो देहि द्विष जाहि’
अर्थात, ‘ओ देवी, जिसे भगवान श्रीकृष्ण असीम भक्ति के
साथ पूजते हैं, हम पर कृपा करिएँ, और हमें सौंदर्य, विजय और
यश का वरदान प्रदान करिये, और हमारे अंदर की सभी
लालसाओं और अज्ञान को मिटाईये’|
यह प्रार्थना है| यह कवच अर्गला कीलकं के तीन छंदों में हैं|
अगर आप देखें, तो वे वास्तव में देवी ही थीं, जिन्होंने
भगवान श्रीकृष्ण की रक्षा करी थी| देवी का जन्म भी
यशोदा के घर में, अष्टमी के दिन ही हुआ था, और उन्हें उसी
दिन मथुरा लाया गया था| कंस ने उन्हें पकड़ने का, और उन्हें
मार देने का प्रयास किया, मगर वे उसके हाथों से छूट गयीं|
यहाँ, कंस अहंकार का प्रतीक है, और भगवान श्रीकृष्ण आनंद
का प्रतीक हैं, और देवी दुर्गा आद्यशक्ति का प्रतीक है|
अहंकार चेतना या मौलिक ऊर्जा (अर्थात देवी) को बंदी
नहीं बना सकता, और न ही आनंद (अर्थात भगवान श्रीकृष्ण)
को पकड़ सकता है|
तब उस दिव्य चेतना ने ये भविष्यवाणी करी, कि अहंकार
का विनाश करने वाला ‘आनंद’ है – और वह पहले ही जन्म ले
चुका है|
जब जीवन आनंद से भर जाता है, तब अहंकार मिट जाता है|
जब कोई व्यक्ति आनंदित होता है, तब उसमें अहंकार नहीं
होता| लेकिन जब तक अहंकार रहता है, तब तक व्यक्ति कष्ट
भोगता है, और दुखी रहता है| वह किसी न किसी कारणवश
दुखी हो जाता है, और किसी न किसी को उसका दोष
देता रहता है| तब भी अहंकार चेतना का विनाश नहीं कर
सकता, क्योंकि चेतना तो अनंत है|
कुछ भी चेतना को नष्ट नहीं कर सकता, और उसकी शक्ति
को कम नहीं कर सकता| यह स्थिर है, और अनंत है| जो
भौतिकी जानते हैं, वे इस बात को भली-भांति जानते हैं
कि ऊर्जा का न तो कभी निर्माण हो सकता है, और ना
ही कभी विनाश हो सकता है| इसी तरह, चेतना का न तो
निर्माण हो सकता है और न ही विनाश हो सकता है| इस
मौलिक ऊर्जा का निर्माण करने का, या विनाश करने
का कोई भी प्रयास निरर्थक ही जाएगा|
देखिये, अगर आप ऊपरी स्तर पर देखें, तो यह केवल एक कहानी
ही लगती है| लेकिन अगर आप इसकी गहराई में जायें, तो आप
इसके अंदर इतना गहरा ज्ञान छुपा पाएंगे|
भगवान श्रीकृष्ण का जन्म एक कारागार में हुआ था| जब
उनका जन्म हुआ, तब पहरा देने वाले सभी पहरेदार सो गए| ये
पहरेदार कौन हैं? ये प्रतीक हैं, हमारी इन्द्रियों के – जब
हमारी इन्द्रियां जो हमेशा बहिर्मुखी रहतीं हैं, जब वे
विश्राम करती हैं, तभी हम अंतर्मुखी हो पाते हैं, और तभी
हम अपने अंदर से उभरने वाले उस आनन्द की अनुभूति कर पाते हैं,
जिसे हम केवल अपने अंदर ही पा सकते हैं|
इसलिए, इन कहानियों का निरंतर विश्लेषण करिये, इन पर
विचार करिये, और आप पाएंगे कि अद्भुत ज्ञान और प्रेम –
ये दोनों ही आपको उपलब्ध हो जायेंगे|
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि, “तुम खुद अपने आप को अपने
पापों से मुक्त नहीं कर सकते| मैं तुम्हें तुम्हारे पापों से मुक्त कर
दूंगा|’
देखिये, जो कुछ भी कोई व्यक्ति करता है – व्रत रखना,
पूजा-आराधना की जगहों पर जाना, पश्चाताप करना, -
ये सब वह इसीलिये करता है, ताकि वह पापों से मुक्त हो
जाए|
तो, भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘अहम तवं सर्व-पापेभ्यो
मोक्षयिश्यमी मा सुचः’
वे कहते हैं, ‘तुम्हें सिर्फ एक काम करना है| तुम सब कुछ मुझे
समर्पण कर दो, और मेरी शरण में आ जाओ’
वे कहते हैं, ‘मेरी शरण में आ जाओ’ – ये उनकी पहली शर्त है| और
फिर वे कहते हैं, ‘मैं तुम्हें तुम्हारे सभी पापों से मुक्त कर दूंगा|
वह मेरा काम है’|
तो, आपका सिर्फ इतना ही काम है, कि आप उनकी शरण में
आ जायें, और फिर वे आपको आपके पापों से मुक्त कर देंगे| यह
बात कहकर वे सारी बातें कह देते हैं| यह उनकी बात को पूर्ण
बना देता है|
मुझे लगता है कि हमें भगवान श्रीकृष्ण के एक वाक्य को सभी
लोगों तक उपलब्ध कराना चाहिये| हम ये नहीं करते, बल्कि
हम इधर-उधार की सभी बातों को सुनते रहते हैं| खास तौर
पर यह बात – ‘मुझे सब कुछ समर्पण कर दो, और मेरी शरण में आ
जाओ, और मैं तुम्हें तुम्हारे पापों से मुक्त कर दूंगा’|
सिर्फ इसी बात से आज हमारे देश में होने वाले धर्म-
परिवर्तन रुक सकते हैं|
भगवान श्रीकृष्ण ने यही बात कही है|
ॐ क्या है ?
ॐ एक गहरा रहस्य है, जिसे जिया जा सकता है, जाना जा सकता है, लेकिन उसे कहना, समझाना या व्याख्या संभव नहीं है, ॐ को चेतना की गहराई में प्रवेश करके अनुभव किया जासकता हैं, कि अस्तित्व में प्रत्येक घटना के आधार में नाद है, एक रहस्यमय संगीत है, जब कोई व्यक्ति जन्म लेता है, या उसकी मृत्यु होती है, तब भी एक आकाशीय संगीत गूंजता है, जिसमें उस व्यक्ति की कार्मिक यात्रा के साथ ही उसके संभावी जीवन की समस्त रूपरेखा छिपी होती है, जो भी सवेदनशील व अतीन्द्रिय व्यक्ति इस संगीत को सुनने में सक्षम होता है, वो उस व्यक्ति के जीवन के बारे में सटीक इशारे कर सकता है, इसी प्रकार कोई भी घटना घटे तो उसके साथ ही एक संगीत जन्म लेता है, लम्बे समय तक साधकों और सिद्धों ने इस रहस्य का अवलोकन किया और पाया कि गहरी आध्यात्मिक घटनाओं का एक विशेष संगीत है, इसे नाद भी कह सकते हैं, अनुगूंज भी कह सकते हैं, गहरे साधकों और सिद्धों ने पाया कि जब आकार विलीन होते हैं, सीमायें विदा होती हैं, व्यक्तित्व विसर्जित होता है, शरीर और मन के बंधन व ग्रंथियां तिरोहित हो जाती हैं, और चेतना अनादि व अनंत स्रोत में प्रवेश कर जाती है, तब भी एक संगीत अनुभव में आता है, यह संगीत शेष समस्त संगीत से भिन्न और अतुलनीय होता है, यही अनाहत नाद है, यह अकारण है, शाश्वत है, सारे सृजन का स्रोत है, इस अनाहत नाद या ॐ को तब अनुभव किया जाता है जब शरीर, मन और चेतना लयबद्ध होकर जागतिक लय से एकाकार हो जाते हैं, जब द्वैत का जगत समाप्त होता है और अद्वैत प्रकट होता है, जब हम साक्षी के आकाश में स्थित हो जाते हैं और जीवन बस एक लीला मात्र रह जाता है, यह ॐ तो अहर्निश गूँज रहा है, यह अक्षर है अर्थात इसका क्षय नहीं होता, इस क्षर जीवन से अक्षर जीवन में प्रवेश कर जाना ही अध्यात्म का उद्देश्य है, स्वयं के भीतर के शांत, स्थिर, मौन, निस्तरंग, निरुद्देश्य, अकारण, अनादि व अनंत केंद्र में प्रवेश कर जाना ही एक मात्र साधना है। और यह साधना है ॐ में प्रवेश कर जाना, ऊपर इस केंद्र को या इस अवस्था को बताने के लिए जितने भी शब्दों का उपयोग किया गया है उसे बस एक ॐ कहकर ही कह दिया जाता है। इसीलिए सिद्धों ने इस ॐ के प्रतीक को खोजा कि व्यर्थ में बहुत कुछ कहने के बजाय बस साधक से इतना कहना पर्याप्त है, कि ॐ को खोजो या ॐ में प्रवेश कर जाओ। ॐ कह दिया तो जो कुछ सारभूत है वो कह दिया, अब बस उसका ही विस्तार होगा.यही सिद्धों और सद्गुरुओं की अंतर्दृष्टि रही।